नित्य संदेश। हिंदू धर्म का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण पर्व दीपावली है। अखिलेश यादव राजनीति में बार-बार सनातन धर्म और परंपराओं को ही क्यों निशाना बनाते रहते है। यह गलत सोच सनातन तीज त्योहारों को लेकर ही होती है। समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव के बयान बताता है कि न तो उनको भारतीय परंपरा का ज्ञान है और न ही छोटे-छोटे व्यापारियों के रोजगार का भान।
दूसरा, वे हमें हमारे पर्व विदेशी तरीके से मनाने की सलाह दें रहे है, आखिर हम क्यों विदेशियों को देखकर अपना त्योहार मनाएं? जबकि हम भारतीयों की अपनी समृद्ध विरासत है और त्योहार मनाने की अपनी खास परंपरा और तरीका है। वही सपा प्रमुख को इतना भी ज्ञान नहीं कि वे जिस दीये न जलाने की परंपरा लाने की बात कर रहे है वह दिए और मोमबत्तियां कितने जन के रोजगार से जुड़ा है। यह न केवर संस्कृति और परंपरा के विरोध की बात है, बल्कि कितने ही व्यापारियों की आमदनी पर भी कुठाराघात है।
समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव द्वारा अयोध्या में होने वाले दीपोत्सव के संदर्भ में दिया गया यह बयान कि "दीये और मोमबत्ती पर पैसा बर्बाद मत करो, क्रिसमस से कुछ सीखना चाहिए..." भारत की सांस्कृतिक और आर्थिक बहस के केंद्र में आ गया है। यादव का यह कथन ऐसे समय आया जब देश दिवाली के उत्सव की तैयारी कर रहा होता है, एक ऐसा पर्व जो सिर्फ रोशनी का त्योहार नहीं, बल्कि छोटे व्यवसायों और स्थानीय कारीगरों के लिए साल भर की कमाई का सबसे बड़ा अवसर भी है।
यादव का सुझाव था कि दीयों और मोमबत्तियों पर बार-बार खर्च करने के बजाय, हमें क्रिसमस की तरह टिकाऊ और महीनों तक चलने वाली बिजली की रोशनी का उपयोग करना चाहिए। हालांकि, यह बयान सनातन परंपरा के एक व्यापक सत्य को नजरअंदाज करता है कि भारत में पर्व-त्योहारों का आर्थिक और सामाजिक ताना-बाना महज रोशनी से कहीं अधिक गहरा है।
वह अर्थव्यवस्था को समझने में भी बहुत बड़ी गलती कर रहे है। दीपावली हमारी परंपरा, संस्कृति है और सनातनियों के सबसे बड़े त्योहार पर एक नहीं अनेक लोगो को रोजगार देने वाला त्योहार है।
भारत में दीपक (दीया) जलाना एक धार्मिक अनुष्ठान होने के साथ-साथ एक सुदृढ़ सांस्कृतिक परंपरा भी है, जो हजारों साल पुरानी है। यह अंधकार पर प्रकाश, बुराई पर अच्छाई और अज्ञान पर ज्ञान की विजय का प्रतीक है। केवल दिवाली ही नहीं, बल्कि हर शुभ कार्य, पूजा-अर्चना और यहां तक कि किसी नए उद्यम की शुरुआत भी दीपक जलाकर ही की जाती है। यह भारतीय परंपरा की पहचान है।
अखिलेश यादव ने जहां इस खर्च को बर्बादी बताया, वहीं वे यह भूल गए कि यह खर्च लाखों गरीब और छोटे व्यापारियों के लिए रोजगार का साधन है। आइए सीधे और मोटे रूप में देखें कि दीपोत्सव और दिवाली जैसे त्योहारों के दौरान दीये जलाने से कितने जन रोजगार पाते है :-
1. कुम्हार (मिट्टी के कारीगर) - मिट्टी के दीयों की मांग बढ़ने से कुम्हारों को साल भर काम मिलता है। उनका पूरा व्यवसाय और आजीविका इन्हीं त्योहारों पर निर्भर करती है।
2. तेल और घी विक्रेता - दीये जलाने के लिए तेल और घी की खपत बढ़ जाती है, जिससे स्थानीय तेल मिलों और किराना दुकानदारों का व्यापार फलता-फूलता है।
3. दीया-बाती बनाने वाले (रुई के कारीगर) - दीये में इस्तेमाल होने वाली बाती (रुई) बनाने वाली छोटी-छोटी ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं और महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों को काम मिलता है।
4. फूल और पूजन सामग्री विक्रेता - त्योहारों पर पूजा-पाठ से जुड़ी सामग्री और फूलों की मांग भी बढ़ती है, जिससे इनसे जुड़े विक्रेताओं को लाभ होता है।
इस तरह, दीयों और मोमबत्तियों पर होने वाला खर्च दरअसल एक चक्रीय अर्थव्यवस्था को गति देता है जो सीधे समाज के सबसे निचले तबके को आर्थिक संबल प्रदान करता है। यह पैसा किसी बड़ी कॉर्पोरेट कंपनी के पास नहीं जाता, बल्कि सीधा गरीब कारीगरों और छोटे दुकानदारों की जेब में जाता है, जिससे उनकी दिवाली मनती है।
दीपावली प्रकाश का सार्वभौमिक उत्सव है। सपा प्रमुख ने बयान में हमें क्रिसमस की लाइटिंग से सीखने का जो सुझाव दिया है, वह तकनीकी दृष्टि से सही हो सकता है, लेकिन भावनात्मक और आर्थिक रूप से यह भारतीय पर्व के मर्म को नहीं समझता।
यह सच है कि आज भारत में भी हर कोई बिजली की लाइट लगाता है—बाजार, घर और सरकारी भवन—सभी एलईडी और झालर वाली लाइटों से जगमगाते हैं। यह दिखाता है कि भारतीय समाज ने आधुनिकता को स्वीकार किया है। लेकिन, इस आधुनिकता के साथ ही, दीपक जलाने की परंपरा को जीवित रखना भारतीयता की पहचान है। यह परंपरा पांच हजार साल पुरानी है, जब श्री राम, माता सीता, भाई लक्ष्मण के साथ पुनः अयोध्या लौटे थे। तब उस खुशी में घी के दीपक जलाए गए थे।
सपा प्रमुख सीधे-सीधे राम जी का विरोध कर रहे है। वे भूल रहे है, बिजली की रोशनी दिखावे के लिए है, जबकि दीपक आस्था और परंपरा के लिए। अखिलेश ने यहां तक कि जिस क्रिसमस का उदाहरण दिया है, वह भी गलत दिया है। उस पर भी ईसाई रीलीजियन वाले बिजली की रोशनी के साथ-साथ, लोग चर्चों और घरों में मोमबत्तियां जलाते हैं। मोमबत्ती भी एक ऐसा उत्पाद है जो छोटे उद्योगों और कारीगरों द्वारा बनाया जाता है। अगर दीये और मोमबत्ती पर खर्च "बर्बादी" है, तो क्रिसमस पर मोमबत्तियां क्यों जलाई जाती हैं? इतना ज्ञान तो होना चाहिए।
अखिलेश यादव का बयान एक राजनीतिक कटाक्ष हो सकता है, लेकिन इसने भारतीय त्योहारों के 'स्थानीय के लिए मुखर' (Vocal for Local) आर्थिक मॉडल की अनदेखी की है। हम सनातनियों के लिए हीन भावना को दर्शाया है।
दीपोत्सव के दौरान दीये खरीदना सिर्फ रोशनी खरीदना नहीं है, बल्कि एक कुम्हार के बच्चे को शिक्षा, एक बाती बनाने वाली महिला को आजीविका और सदियों पुरानी भारतीय परंपरा को जीवनदान देना है। भारत में बिजली की रोशनी का प्रयोग भी किया जाता है, लेकिन दीयों और मोमबत्तियों को त्यागा नहीं जा सकता, क्योंकि ये सिर्फ प्रकाश के स्रोत नहीं हैं, बल्कि हमारी संस्कृति, आस्था और लाखों छोटे-बड़े कारीगरों के रोजगार की गारंटी हैं। हमारी परंपरा में दीपक जलाना हमारे देश की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जड़ों को मजबूत करता है।
सपा प्रमुख राजनीति के चक्कर में राम विरोधी और सनातन विरोधी बातें कर रहे है जो किसी भी तरह से ठीक नहीं है। ऐसे बयान खुद की छोटी और सनातन धर्म और उससे जुड़े त्योहारों पर गलत सोच है। विपक्ष के नेता राजनीति करें लेकिन हमें नहीं सिखाए कि हम हमारा सबसे प्रमुख त्योहार दीपावली किसी ओर तरीके से मनाए।
लेखिका
सपना सी.पी. साहू 'स्वप्निल'
इंदौर (म.प्र.)
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