-सीसीएसयू के उर्दू विभाग में उत्तर आधुनिकतावाद और उर्दू
साहित्य विषय पर ऑनलाइन कार्यक्रम आयोजित
नित्य संदेश ब्यूरो
मेरठ। किसी भी आंदोलन के स्वरूप के कई उद्देश्य और लक्ष्य होते हैं।
पश्चिमी देशों में उत्तर आधुनिकता खत्म हो चुकी है। जब कोई लेखक कोई लेखन या
आंदोलन सामने लाता है तो उसका आंदोलन खत्म हो जाता है। वह साहित्य साहित्य नहीं हो
सकता, जिसमें बहुआयामीता न हो। आधुनिकता ने चेहराविहीनता की
ओर इशारा किया है। किसी प्रतिष्ठित विद्वान या बुद्धिवादी ने जो कुछ भी लिखा है
उसे उत्तर आधुनिकता कहा जा सकता है। महान लेखक वे होते हैं,
जो साहित्य को जीवन और समाज से जोड़कर लिखते हैं। इंतिजार हुसैन की कहानियों में
हमें आधुनिकता नजर आती है। यह शब्द प्रसिद्ध आलोचक प्रोफेसर इर्तजा करीम (पूर्व
अध्यक्ष, उर्दू विभाग डीयू) के थे, जो आयुसा और उर्दू विभाग द्वारा आयोजित उत्तर
आधुनिकतावाद और उर्दू साहित्य विषय पर विशेष अतिथि के रूप में अपना भाषण दे रहे
थे।
कार्यक्रम की शुरुआत मुहम्मद नदीम द्वारा पवित्र कुरान की तिलावत से हुई।
कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रोफेसर सगीर अफ्राहीम ने की। डॉ. मुश्ताक सदफ [उर्दू
विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय]
ने विशिष्ट अतिथि के रूप में भाग लिया। लखनऊ से आयुसा की अध्यक्ष प्रोफेसर रेशमा
परवीन विशेष वक्ता के रूप में कार्यक्रम में मौजूद थीं। संचालन शोध छात्रा सैयदा
मरियम इलाही ने तथा धन्यवाद ज्ञापन डॉ. इरशाद स्यानवी ने किया। इस अवसर पर विषय
प्रवेश कराते हुए प्रोफेसर असलम जमशेदपुरी ने कहा कि आज का विषय भी बहुत
महत्वपूर्ण है। भारत में उत्तर आधुनिकतावाद को लाने का श्रेय प्रोफेसर गोपीचंद
नारंग को है। उनकी नजर साहित्य के हर उतार-चढ़ाव पर थी। उन्होंने प्रगतिवाद के
विकास के बाद आधुनिकता के उत्थान और पतन को देखा। बाद में उन्होंने उत्तर आधुनिकता
की प्रवृत्ति को लोकप्रिय बनाना शुरू किया। नारंग साहब ने इस सिद्धांत को समझा और
फिर इसके दायरे को खुले तौर पर समझाया। उन्होंने किसी एक सिद्धांत की नहीं, बल्कि इस युग
को साहित्य के सिद्धांतों के रूप में व्याख्यायित किया। निजाम सिद्दीकी ने भी
उत्तर आधुनिकता का ध्यानपूर्वक अध्ययन किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इसका कोई
मुकाबला नहीं है। यह एक प्रवृत्ति है जो लेखकों को स्वतंत्रता प्रदान करती है और
यह सिद्धांतों का एक समूह है।
इस अवसर पर डॉ. अल्ताफ अंजुम, आमरीन नाज और सैयदा मरियम इलाही
ने उत्तर आधुनिकता और उर्दू पर अपने लेख प्रस्तुत किए। अंत में अपने अध्यक्षीय
भाषण में प्रोफेसर सगीर अफ्राहीम ने कहा कि आज की चर्चा में प्रोफेसर इर्तजा करीम
ने कई नए बिंदुओं की ओर इशारा किया है। दरअसल हमें यह जानना होगा कि आंदोलन और
प्रवृत्ति में क्या अंतर है। आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता प्रवृत्ति है या आंदोलन? हमें इसकी तह में जाकर आधुनिक प्रगतिवाद के लक्षण
तलाशने होंगे।
आधुनिक प्रगतिवाद पर प्रोफेसर इर्तजा करीम, डॉ. मुश्ताक सदफ और प्रोफेसर असलम जमशेदपुरी की
किताबें सामने आई हैं। इनमें कई नई संभावनाएं भी दिखाई देती हैं। कार्यक्रम से डॉ.
आसिफ अली, डॉ. शादाब अलीम, डॉ. जफर गुलजार, डॉ. मुहम्मद अरशद, मुहम्मद शमशाद, सईद अहमद सहारनपुरी और छात्र जुड़े।
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