**********
व्याप रहा है
सकल सृष्टि में ,
हिमगिरि का परिवार ।
ठिठुरी रजनी ,
मांग रही है ,
रवि का गहरा प्यार ।
कंपित कंपित
सभी दिशाएं ,
लता विटप हिम श्वेत ।
बरगद की
शाखा से लिपटा ,
हिम मंडित ऋतु प्रेत ।
दूर्वा के
मस्तक पर दीपित ,
तुहिन कणों का भार ।
ठिठुरी रजनी ******** 1
सरित् सरोवर
ओढे बैठे ,
हिम की मोटी छाल ,
वृद्ध कृषक को
बांध रही है ,
अब अलाव की झाल ।
रवि ने बिछा रखा
आंगन में ,
ऊष्ण किरण उपहार ।
ठिठुरी रजनी ******* 2
शब्द जम रहे ,
भाव जम रहे ,
जमने लगी ,
काव्य की धारा ।
सुख दुख की
अनुभूति जम रही ,
जमा , पलक का
पानी खारा ।
सघन शीत को
पुष्ट कर रही
मावठ की बोछार ।
ठिठुरी रजनी ****** 3
पौष मास का
प्रखर पराक्रम ,
रवि का तेज
परास्त हुआ ।
शिरा प्रवाहित ,
रक्त जम रहा ,
सिहरा तन का
रुआं रुआं ।
हिमगिरि की
निश्वास विकट है ,
जमने लगी बयार ।
ठिठुरी रजनी ***** 4
जठरानल की
जागृत ज्वाला ,
पुष्टि प्रदायक ,
भोज्य पचाती ।
काया की
सब दुर्बलताएं ,
इस ऋतु में
थक कर ,सो जातीं ।
पृकृति स्वयं ही
कर देती है
हर तन का
शोभित श्रृंगार ।
ठिठुरी रजनी ***** 5
जो , हिम की
जड़ता से लड़ता ,
वही शीत पर
भारी पड़ता ।
स्वेद बहाता
जो इस ऋतु में ,
वही ,
सबल काया को गढता ।
स्वेद शुल्क से ही
मिल पाता ,
पृकृति प्रेयसी
का अभिसार ।
ठिठुरी रजनी ******* 6
मैं
ठिठुरा जीवन
No comments:
Post a Comment