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Tuesday, December 16, 2025

शीत श्रृंगार


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व्याप रहा है 
सकल सृष्टि में , 
हिमगिरि का परिवार ।
ठिठुरी रजनी ,
मांग रही है ,
रवि का गहरा प्यार ।

कंपित कंपित  
सभी दिशाएं ,
लता विटप हिम श्वेत ।
बरगद की 
शाखा से लिपटा ,
हिम मंडित ऋतु प्रेत ।
दूर्वा के 
मस्तक पर दीपित , 
तुहिन कणों का भार ।
ठिठुरी रजनी ******** 1

सरित् सरोवर 
ओढे बैठे ,
हिम की मोटी छाल ,
वृद्ध कृषक को 
बांध रही है ,
अब अलाव की झाल ।
रवि ने बिछा रखा 
आंगन में , 
ऊष्ण किरण उपहार ।
ठिठुरी रजनी ******* 2

शब्द जम रहे , 
भाव जम रहे ,
जमने लगी ,
काव्य की धारा ।
सुख दुख की 
अनुभूति जम रही ,
जमा , पलक का 
पानी खारा ।
सघन शीत को 
पुष्ट कर रही 
मावठ की बोछार ।
ठिठुरी रजनी ****** 3

पौष मास का 
प्रखर पराक्रम , 
रवि का तेज 
परास्त हुआ ।
शिरा प्रवाहित ,
रक्त जम रहा , 
सिहरा तन का 
रुआं रुआं ।
हिमगिरि की 
 निश्वास विकट है ,
जमने लगी बयार । 
ठिठुरी रजनी ***** 4

जठरानल की 
जागृत ज्वाला , 
पुष्टि प्रदायक ,
भोज्य पचाती ।
काया की 
सब दुर्बलताएं , 
इस ऋतु में 
थक कर ,सो जातीं ।
पृकृति स्वयं ही 
कर देती है 
हर तन का 
शोभित श्रृंगार ।
ठिठुरी रजनी ***** 5

जो , हिम की 
जड़ता से लड़ता ,
वही शीत पर 
भारी पड़ता । 
स्वेद बहाता  
जो इस ऋतु में ,
वही ,
सबल काया को गढता ।
 स्वेद शुल्क से ही 
मिल पाता ,
पृकृति प्रेयसी
 का अभिसार ।
ठिठुरी रजनी ******* 6 


                   मैं 
           ठिठुरा जीवन

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