प्रो. (डॉ.) अनिल नौसरान
नित्य संदेश। भारत आज एक ऐसे गंभीर जनस्वास्थ्य संकट की ओर बढ़ रहा है, जिस पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यह संकट है — एलोपैथिक दवाओं, विशेषकर एंटीबायोटिक्स, का अविवेकपूर्ण प्रचार, अंधाधुंध प्रिस्क्रिप्शन और अनियंत्रित उपयोग। यह स्थिति न केवल व्यक्तिगत स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचा रही है, बल्कि देश को उस दौर की ओर धकेल रही है जहाँ सामान्य संक्रमण भी जानलेवा सिद्ध हो सकते हैं।
फार्मास्युटिकल कंपनियों द्वारा अनैतिक प्रचार
इस संकट का एक बड़ा कारण है फार्मा कंपनियों द्वारा एलोपैथिक दवाओं का आक्रामक और अवैज्ञानिक प्रचार। कई बार बिक्री बढ़ाने के उद्देश्य से दवाओं को वैज्ञानिक तर्क, नैतिकता और रोगी सुरक्षा की अनदेखी करते हुए बढ़ावा दिया जाता है। चिंताजनक तथ्य यह है कि इन दवाओं का प्रचार अप्रत्यक्ष रूप से एलोपैथी के बाहर की पद्धतियों तक पहुँच रहा है, जहाँ एलोपैथिक फार्माकोलॉजी का मानकीकृत प्रशिक्षण नहीं होता।
गैर-एलोपैथिक पद्धतियों द्वारा एलोपैथिक दवाओं का उपयोग
अन्य चिकित्सा पद्धतियों द्वारा एलोपैथिक दवाओं का उपयोग आज एक आम चलन बन चुका है, जो वैज्ञानिक रूप से असुरक्षित और कानूनी रूप से संदिग्ध है। एंटीबायोटिक्स, स्टेरॉयड, ब्लड प्रेशर और डायबिटीज़ की दवाएँ अत्यंत संवेदनशील होती हैं, जिनके लिए आवश्यक है:
* सटीक निदान
* प्रमाण आधारित संकेत
* सही मात्रा (डोज़)
* निश्चित अवधि
* दुष्प्रभावों की निगरानी
इन मानकों के बिना दवा उपचार नहीं, बल्कि ज़हर बन जाती है।
एंटीबायोटिक रेज़िस्टेंस: मानव-निर्मित आपदा
अविवेकपूर्ण दवा उपयोग का सबसे खतरनाक परिणाम है एंटीबायोटिक प्रतिरोध। आज एंटीबायोटिक्स:
* बिना बैक्टीरियल संक्रमण की पुष्टि
* वायरल बीमारियों में
* गलत मात्रा में
* अनुचित अवधि तक
* कल्चर एवं सेंसिटिविटी जाँच के बिना
दी जा रही हैं। परिणामस्वरूप, प्रतिरोध तेजी से विकसित हो रहा है। यदि यही प्रवृत्ति जारी रही, तो वह समय दूर नहीं जब सबसे शक्तिशाली एंटीबायोटिक्स भी निष्प्रभावी हो जाएँगी। यह कोई भविष्य की आशंका नहीं, बल्कि वर्तमान की वास्तविकता है।
न डोज़ नियंत्रण, न अवधि नियंत्रण, न प्रोटोकॉल
वर्तमान परिदृश्य में प्रायः देखने को मिलता है:
* डोज़ का अभावपूर्ण नियंत्रण
* उपचार अवधि की अनदेखी
* मानक उपचार प्रोटोकॉल का उल्लंघन
* कोई जवाबदेही नहीं
इसका दुष्परिणाम आम जनता को दो स्तरों पर भुगतना पड़ रहा है:
1. स्वास्थ्य की दृष्टि से – दीर्घकालिक रोग, दवा प्रतिरोध, अंगों को क्षति
2. आर्थिक रूप से – अनावश्यक दवाओं और जाँचों पर बढ़ता खर्च
अनुमान है कि देश में लगभग 80% दवाएँ अनावश्यक रूप से उपयोग की जा रही हैं।
बिना निदान की दवा: चिकित्सा हिंसा
चिकित्सा विज्ञान का एक मूल सिद्धांत है:
> बिना समुचित जाँच और निदान के कोई भी दवा नहीं दी जानी चाहिए।
अंधाधुंध दवा लिखना उपचार नहीं, बल्कि चिकित्सकीय लापरवाही है। हर गोली में लाभ के साथ-साथ जोखिम भी होता है। इसलिए एक भी दवा केवल पूर्ण नैदानिक परीक्षण और आवश्यक जाँच के बाद ही दी जानी चाहिए।
सरकार से तात्कालिक और कठोर कार्रवाई की आवश्यकता
यह स्थिति तत्काल सरकारी हस्तक्षेप की माँग करती है। सरकार को चाहिए कि वह:
1. फार्मा कंपनियों के प्रचार को सख्ती से नियंत्रित करे और उसे केवल एलोपैथिक डॉक्टरों तक सीमित रखे
2. गैर-एलोपैथिक पद्धतियों द्वारा एलोपैथिक दवाओं के उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगाए
3. एंटीबायोटिक स्टूवर्डशिप कार्यक्रम और प्रिस्क्रिप्शन ऑडिट लागू करे
4. अविवेकपूर्ण दवा-लेखन के विरुद्ध कठोर कानून लागू करे
5. जन-जागरूकता बढ़ाए कि अधिक दवाएँ बेहतर इलाज नहीं होतीं
सरकार को समय रहते संज्ञान लेना होगा, अन्यथा स्थिति अपूरणीय हो सकती है।
यदि अभी सुधारात्मक कदम नहीं उठाए गए, तो भारत एक ऐसे स्वास्थ्य संकट की ओर बढ़ेगा जहाँ एंटीबायोटिक्स बेअसर हो जाएँगी, इलाज अत्यधिक महँगा होगा और साधारण बीमारियाँ भी असाध्य बन जाएँगी।
दवा का उद्देश्य उपचार है, नुकसान नहीं।
चिकित्सा विज्ञान का मार्गदर्शन विज्ञान करे, व्यापार नहीं।
रोगी का हित सर्वोपरि होना चाहिए।

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