नित्य संदेश। हिंदुस्तान में वर्ण व्यवस्था किसी व्यक्ति विशेष या किसी जाति विशेष के लोगों द्वारा नहीं बनाई गई थी। यह कोई साजिश नहीं थी, बल्कि समाज के भीतर कर्म, आचरण और योग्यता के आधार पर स्वयं उत्पन्न हुई एक व्यवस्था थी।
हर समाज में, हर जाति में – अपने आप ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जैसी प्रवृत्तियाँ विकसित हो जाती हैं। यह सत्य है कि मैं स्वयं जिस समाज से आता हूँ, उस समाज में भी हर प्रकार के लोग मौजूद हैं – कोई ज्ञान साधना में है, कोई व्यापार कर रहा है, कोई सेना में सेवा दे रहा है, और कोई अपने आचरण से समाज को कलंकित कर रहा है। इसलिए सच्चाई यह है कि मैं अपने समाज के हर व्यक्ति के साथ न तो भोजन ग्रहण कर सकता हूँ, न ही हर किसी के साथ सामाजिक संबंध रख सकता हूँ, क्योंकि मेरे समाज में भी शराबी, कबाबी, दुराचारी, और अपराधी प्रवृत्ति के लोग हैं।
**वर्ण का निर्धारण जन्म से नहीं, कर्म से होता है।**
जिसने अपने आचरण में सुधार लाया, जो ईमानदारी, परिश्रम और नैतिकता से जीवन जीता, वही वास्तविक ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र कहलाने योग्य है। आज जब कुछ लोग आरक्षण की बात करते हैं, तो वे कहते हैं कि पहले वर्णवाद और जातिवाद समाप्त करें, तब आरक्षण खत्म होगा।
लेकिन सच यह है कि **वर्णवाद कोई थोपी हुई सोच नहीं है, यह तो समाज का स्वाभाविक प्रतिबिंब है, जो प्रत्येक समूह के भीतर स्वयं जन्म लेता है।
इसलिए, समाज में समानता लाने का एक ही रास्ता है
अपने कर्म और आचरण में सुधार लाना। क्योंकि आरक्षण या जाति नहीं, बल्कि चरित्र ही असली पहचान है।
प्रोफेसर (डॉ.) अनिल नौसरान
संस्थापक: साइक्लोमेड फिट इंडिया
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