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Thursday, May 1, 2025

चार जातियों से जातीय जनगणना तक


नित्य संदेश। "देश में सिर्फ चार जातियाँ हैं — गरीब, युवा, किसान और महिलाएं।" यह वाक्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार अपने भाषणों में दोहराया है। यह कथन जातिवाद से ऊपर उठने की एक राजनीतिक कोशिश के रूप में प्रस्तुत किया गया, जिससे उनके नेतृत्व की ‘विकासवादी’ छवि को बल मिलता रहा। लेकिन अब वही सरकार जातीय जनगणना कराने के लिए तैयार दिख रही है। इस परिवर्तन को मात्र प्रशासनिक निर्णय नहीं माना जा सकता, बल्कि यह भारतीय राजनीति में जाति के दबावों का स्पष्ट संकेत है।

मोदी का जाति-विरोधी विमर्श: एक रणनीतिक नैरेटिव
2014 से 2019 तक मोदी का राजनीतिक नैरेटिव "सबका साथ, सबका विकास" की छतरी के नीचे जातिवाद के पार जाने का प्रयास करता रहा। इस विचार में यह सन्निहित था कि भाजपा अब मंडल राजनीति से खुद को अलग कर चुकी है। चार "जातियों" की बात करके मोदी ने सामाजिक समीकरणों को आर्थिक और विकास के मुद्दों में बदलने का प्रयास किया। यह विमर्श शहरी मध्यम वर्ग, उच्च जातियों और नव-उभरते पिछड़े वर्गों के उस हिस्से को आकर्षित करता था जो खुद को 'भारतीय' मानकर जाति से ऊपर सोचने लगा था।

जातीय जनगणना की वापसी: क्यों बदली रणनीति?
हाल के वर्षों में बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की अगुवाई में कराई गई जातीय सर्वेक्षण ने एक नई बहस छेड़ दी। इस सर्वेक्षण ने दिखा दिया कि OBC और EBC आबादी का अनुपात 60% से अधिक है, जबकि सरकारी नौकरियों और संसाधनों में उनकी हिस्सेदारी बहुत सीमित है। यह आँकड़े भाजपा के सामाजिक समीकरणों को चुनौती देते हैं। भाजपा ने शुरू में जातीय जनगणना का विरोध किया था, लेकिन अब वह इसे अपनाने की ओर बढ़ रही है। इसके पीछे कई राजनीतिक कारण हैं:

2024 के लोकसभा चुनाव के बाद दलित-पिछड़ा समीकरण में सेंध की आवश्यकता
महागठबंधन और क्षेत्रीय दलों की पिछड़ा-आधारित राजनीति से निपटने के लिए भाजपा को जातीय डेटा की जरूरत है ताकि वह स्वयं को सामाजिक न्याय के पक्षधर के रूप में पुनर्स्थापित कर सके।

RSS का नया सामाजिक एजेंडा
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी हाल के वर्षों में सामाजिक समरसता और पिछड़ी जातियों तक पहुँच बनाने के लिए कार्य तेज किया है। ऐसे में जातीय जनगणना का समर्थन करना संघ के एजेंडे के भी अनुरूप है।

न्याय, आरक्षण और प्रतिनिधित्व की मांगों को प्रबंधित करने की रणनीति
जातीय आंकड़ों के बिना सामाजिक न्याय की नई नीतियाँ बनाना मुश्किल होता जा रहा है। मोदी सरकार यदि खुद यह आंकड़े इकट्ठा करती है तो उसे सामाजिक न्याय पर विमर्श को नियंत्रित करने का मौका मिलेगा।

विरोधाभास या व्यावहारिक राजनीति?
मोदी का 'चार जातियों' वाला बयान प्रतीकात्मक था — लेकिन भारत की ज़मीनी राजनीति में जाति एक ठोस यथार्थ है। चुनावी गणित, नौकरियों में आरक्षण, संसाधनों का बँटवारा — सब कुछ जाति के आंकड़ों से जुड़ा है। इसलिए, जातीय जनगणना की ओर झुकाव को मोदी सरकार की 'यू-टर्न' नीति कहने के बजाय एक राजनीतिक व्यावहारिकता माना जा सकता है। भाजपा अब यह समझ चुकी है कि विकास के नारों से एक सीमित दायरे तक ही प्रभाव पैदा किया जा सकता है, लेकिन जातिगत प्रतिनिधित्व की माँगें अगर उपेक्षित रहीं, तो राजनीतिक नुकसान होना तय है।

निहितार्थ: जातीय डेटा का राजनीतिक और सामाजिक भविष्य
जातीय आंकड़ों के आधार पर आरक्षण की माँगें बढ़ेंगी
विशेषकर ओबीसी समुदायों में आरक्षण की सीमा 50% से ऊपर बढ़ाने की मांग तेज हो सकती है।

सामाजिक न्याय का विमर्श केंद्र में आएगा
कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों को एक नई ताकत मिलेगी — "जितनी जनसंख्या, उतना प्रतिनिधित्व" का नारा फिर से गूंजेगा।

नव-जातीय राजनीति का उदय
नई जातियों की पहचान, उप-वर्गीकरण और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की माँगों का नया दौर शुरू होगा। भाजपा को इन्हें संतुलित करने की चुनौती होगी। आज की राजनीति यथार्थ की माँग करती है, जिसमें जाति का आंकड़ा न केवल सामाजिक न्याय का औजार है, बल्कि राजनीतिक अस्त्र भी बन चुका है। मोदी सरकार का जातीय जनगणना की ओर झुकना इस बात का संकेत है कि भाजपा भी अब सामाजिक यथार्थ को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती। जातीय जनगणना के मुद्दे पर कहना कि यह पूरी तरह राहुल गांधी की जीत है — एक आंशिक सत्य होगा, लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि उन्होंने इस विमर्श को मुख्यधारा में लाने में निर्णायक भूमिका निभाई है।

राहुल गांधी की भूमिका:
भारत जोड़ो यात्रा और जाति-आधारित न्याय की बात:
राहुल गांधी ने "जितनी आबादी, उतना हक़" का नारा देकर जातीय जनगणना को कांग्रेस के सामाजिक न्याय एजेंडे का केंद्र बनाया।

बिहार की जातीय गणना का समर्थन:
जब नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने जातीय सर्वे कराया, तब कांग्रेस ने उसका खुला समर्थन किया, जबकि बीजेपी शुरुआत में असहज दिख रही थी।

लोकसभा में जोरदार पैरवी:
2023-24 में लोकसभा में राहुल गांधी ने कई बार सरकार से जातीय जनगणना की मांग की और इसे OBC समुदाय के हक से जोड़ा। परंतु...यह पूरी जीत राहुल गांधी की नहीं है, क्योंकि: नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव, मायावती, अखिलेश यादव जैसे नेताओं ने भी जातीय जनगणना की ज़मीन तैयार की थी। भाजपा पर सामाजिक दबाव, विशेषकर पिछड़े वर्गों से जुड़े संगठनों और खुद संघ की बदली हुई रणनीति ने भी सरकार को इस दिशा में झुकने पर मजबूर किया। भाजपा को भी यह समझ में आ गया कि अगर वह पिछड़ा वर्ग की राजनीति में प्रासंगिक रहना चाहती है, तो जातीय जनगणना का विरोध राजनीतिक आत्मघात होगा।

जातीय जनगणना का मुद्दा राहुल गांधी के लिए नैरेटिव जीत जरूर है, लेकिन पूर्ण राजनीतिक जीत नहीं — क्योंकि इसके लिए ज़मीनी राजनीति में क्षेत्रीय दलों, सामाजिक संगठनों और भाजपा के भीतर बदलाव ने भी उतना ही योगदान दिया है। 

लेखक 
डॉ रवीन्द्र राणा 
वरिष्ठ पत्रकार, मेरठ 

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