Breaking

Your Ads Here

Saturday, July 5, 2025

यौम-ए-आशूरा आज: सत्य, न्याय और बलिदान की भावना को जीवित रखता है दस मोहर्रम

 

नित्य संदेश ब्यूरो 
नई दिल्ली। मोहर्रम इस्लाम धर्म के शिया समुदाय द्वारा मुख्य रूप से मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण पर्व है। यह हिजरी कैलेंडर का पहला महीना है और इसे शोक के महीने के रूप में जाना जाता है। मोहर्रम को मनाने का प्रमुख कारण इमाम हुसैन इब्न अली, जो पैगंबर मुहम्मद के नवासे थे, की शहादत को याद करना है।

कारण और महत्व:
इमाम हुसैन की शहादत: मोहर्रम की 10वीं तारीख (यौम-ए-आशूरा) को सन् 680 ईस्वी में इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों को कर्बला (आधुनिक इराक) में यज़ीद की सेना द्वारा शहीद कर दिया गया था। यह युद्ध सत्य, न्याय और धर्म के लिए लड़ा गया था, क्योंकि इमाम हुसैन ने यज़ीद की अन्यायपूर्ण और अधार्मिक शासन के खिलाफ विद्रोह किया था। शिया मुसलमान इस शहादत को सत्य और बलिदान के प्रतीक के रूप में देखते हैं और इसे गहरे शोक के साथ याद करते हैं।

शोक और मातम:
मोहर्रम के पहले 10 दिन, विशेष रूप से आशूरा का दिन, शिया समुदाय में शोक और मातम के लिए समर्पित होते हैं। लोग काले कपड़े पहनते हैं, मातमी जुलूस निकालते हैं, और मजलिस (धार्मिक सभाओं) में इमाम हुसैन की शहादत की घटनाओं को याद करते हैं। ताज़िया (इमाम हुसैन के मकबरे की प्रतीकात्मक संरचना) निकालना और मातम करना इस दौरान आम है। 

नैतिक और आध्यात्मिक संदेश:
मोहर्रम का पर्व न केवल शोक का प्रतीक है, बल्कि यह अन्याय के खिलाफ खड़े होने, सत्य की रक्षा करने और बलिदान की भावना को भी दर्शाता है। यह लोगों को धैर्य, सहनशीलता और नैतिकता के महत्व को सिखाता है।

सुन्नी समुदाय में मोहर्रम:
सुन्नी मुसलमान भी मोहर्रम को महत्व देते हैं, लेकिन वे इसे शोक की तुलना में अधिकतर आशूरा के दिन रोज़ा (उपवास) रखकर मनाते हैं। यह रोज़ा पैगंबर मुहम्मद की सुन्नत पर आधारित है, जो हज़रत मूसा द्वारा फिरौन से मुक्ति की याद में रखा जाता है।

निष्कर्ष:
मोहर्रम का पर्व इमाम हुसैन के बलिदान और कर्बला की घटना को याद करने का अवसर है, जो शिया समुदाय में विशेष रूप से शोक और मातम के साथ मनाया जाता है। यह पर्व सत्य, न्याय और बलिदान की भावना को जीवित रखता है।

इस्लामिक खलीफा का उत्तराधिकार विवाद:
पैगंबर मुहम्मद की मृत्यु (632 ईस्वी) के बाद, इस्लामिक समुदाय में खलीफा (उत्तराधिकारी) के चयन को लेकर मतभेद उत्पन्न हुए। शिया समुदाय का मानना था कि खलीफा का पद पैगंबर के परिवार, विशेष रूप से हज़रत अली (पैगंबर के चचेरे भाई और दामाद) और उनके वंशजों को मिलना चाहिए। वहीं, सुन्नी समुदाय ने अबू बकर को पहला खलीफा चुना। हज़रत अली चौथे खलीफा बने, लेकिन उनकी हत्या (661 ईस्वी) के बाद सत्ता उमय्यद वंश के मुआविया प्रथम के पास चली गई। मुआविया ने अपने पुत्र यज़ीद को उत्तराधिकारी नियुक्त किया, जिससे इस्लाम में खलीफा की नियुक्ति के बजाय वंशवादी शासन शुरू हुआ।

यज़ीद का शासन और विरोध:
यज़ीद प्रथम (680-683 ईस्वी) के शासन को कई मुसलमानों ने अन्यायपूर्ण और इस्लाम के सिद्धांतों के खिलाफ माना। यज़ीद को एक अयोग्य और भ्रष्ट शासक माना जाता था, जो शराब, विलासिता और क्रूरता में लिप्त था। कूफा (इराक) के लोगों ने इमाम हुसैन को पत्र लिखकर यज़ीद के खिलाफ समर्थन मांगा और उन्हें खलीफा के रूप में स्वीकार करने की इच्छा जताई। इमाम हुसैन, जो मदीना में रह रहे थे, ने कूफा की जनता के आह्वान पर कूफा जाने का फैसला किया।

कर्बला की ओर यात्रा:
इमाम हुसैन अपने परिवार, कुछ साथियों और समर्थकों (लगभग 72 लोग) के साथ मदीना से मक्का, और फिर कूफा की ओर निकले। लेकिन रास्ते में उन्हें पता चला कि कूफा के लोग यज़ीद के दबाव में उनके समर्थन से पीछे हट गए थे।यज़ीद की सेना, जिसका नेतृत्व उमर इब्न साद कर रहा था, ने इमाम हुसैन और उनके छोटे से काफिले को कर्बला के मैदान में रोक लिया।

कर्बला का युद्ध 
(10 मोहर्रम, 61 हिजरी): स्थान: कर्बला, जो फरात नदी के किनारे एक रेगिस्तानी क्षेत्र था। घटना: यज़ीद की सेना ने इमाम हुसैन और उनके काफिले को पानी से वंचित कर दिया। 10 मोहर्रम (आशूरा) को यज़ीद की विशाल सेना (लगभग 30,000 सैनिक) और इमाम हुसैन के छोटे समूह (72 लोग, जिनमें महिलाएं और बच्चे शामिल थे) के बीच युद्ध हुआ। इमाम हुसैन और उनके सभी पुरुष साथी (हज़रत अब्बास, अली अकबर, अली असगर आदि सहित) शहीद हो गए। महिलाओं और बच्चों, विशेष रूप से हज़रत ज़ैनब और इमाम ज़ैनुल आबिदीन, को बंदी बनाकर दमिश्क (यज़ीद की राजधानी) ले जाया गया।

कर्बला का महत्व:
नैतिक और धार्मिक संदेश: कर्बला की घटना सत्य, न्याय और अन्याय के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक बन गई। इमाम हुसैन ने यज़ीद की सत्ता को स्वीकार करने के बजाय शहादत को चुना, जो शिया समुदाय के लिए बलिदान और प्रतिरोध का प्रतीक है।
शिया-सुन्नी दृष्टिकोण: शिया समुदाय इसे शोक और मातम के रूप में याद करता है, जबकि सुन्नी समुदाय इसे ऐतिहासिक और नैतिक दृष्टिकोण से देखता है, और आशूरा पर रोज़ा रखता है।
सांस्कृतिक प्रभाव: कर्बला की घटना ने इस्लामिक साहित्य, कला और परंपराओं, विशेष रूप से शिया समुदाय में, गहरा प्रभाव डाला। ताज़िया, मजलिस और मातमी जुलूस इसकी याद में आयोजित किए जाते हैं।

ऐतिहासिक परिणाम:
कर्बला की घटना ने उमय्यद शासन की नींव को कमजोर किया और कई विद्रोहों को प्रेरित किया। इसने शिया आंदोलन को मजबूत किया और इमाम हुसैन को शिया समुदाय में एक केंद्रीय आध्यात्मिक और नैतिक व्यक्तित्व बनाया। कर्बला की घटना केवल एक युद्ध नहीं थी, बल्कि यह सत्य और अन्याय के बीच एक ऐतिहासिक संघर्ष का प्रतीक है। यह इस्लामिक इतिहास में एक ऐसी घटना है जो आज भी शिया समुदाय को प्रेरित करती है और विश्व भर में मोहर्रम के दौरान शोक और सम्मान के साथ याद की जाती है।



No comments:

Post a Comment

Your Ads Here

Your Ads Here