उर्दू विभाग में "आधुनिकता और उर्दू साहित्य" विषय पर ऑनलाइन कार्यक्रम आयोजित
नित्य संदेश ब्यूरो
मेरठ। आज का साहित्य एक स्वतंत्र साहित्य है, जिस पर किसी तरह का बोझ नहीं है। आपको बस यह ध्यान रखना है कि साहित्य में कितना साहित्य है और साहित्य को शामिल करना जरूरी है। "मचास" एक आधुनिक कथा है। इकबाल मजीद, सुरेंद्र प्रकाश आदि ने भी कई कथाएं लिखीं। उनमें कथा और आधुनिकता दोनों हैं। यहां हम कथा या कविता में स्वतंत्रता के साथ स्वतंत्र साहित्य लिख रहे हैं। यही आधुनिकता है। ये शब्द थे प्रसिद्ध आलोचक प्रोफेसर कुद्दुस जावेद के, जो आयुसा और उर्दू विभाग द्वारा आयोजित "आधुनिकता और उर्दू साहित्य" विषय पर बतौर मुख्य अतिथि अपना भाषण दे रहे थे।
उन्होंने आगे कहा कि जब भी हम साहित्य की बात करते हैं, तो हमें आज को ध्यान में रखना चाहिए। जब हम आज की बात करेंगे, तो ये आधुनिक साहित्यिक रचनाएँ होंगी।कार्यक्रम की शुरुआत सईद अहमद सहारनपुरी ने पवित्र कुरान की तिलावत से की। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रोफेसर सगीर अफराहीम (पूर्व अध्यक्ष उर्दू विभाग एएमयू,अलीगढ़)ने की। प्रोफेसर कुद्दूस जावेद [पूर्व प्रमुख उर्दू विभाग, कश्मीर विश्वविद्यालय] और डॉ. मुश्ताक अहमद वानी [जम्मू] ने विशिष्ट अतिथि के रूप में ऑनलाइन भाग लिया। लखनऊ से आयुसा की अध्यक्ष प्रोफेसर रेशमा परवीन विशेष वक्ता के रूप में मौजूद रहीं। डॉ. अख्तर आजाद, जमशेदपुर और डॉ फरहत खातून, मेरठ ने शोध वक्ताओं के रूप में भाग लिया। डॉ इरशाद स्यानवी ने कार्यक्रम का संचालन और मुहम्मद नदीम ने आभार व्यक्त किया।
इस अवसर पर प्रोफेसर असलम जमशेदपुरी ने कहा कि आज का विषय बहुत महत्वपूर्ण है और हमारे बहुत से विद्यार्थी आज के विषय से बहुत परिचित नहीं हैं। आधुनिकता को समझने के लिए हमें प्रगतिवादी आंदोलन को समझना होगा, तभी आधुनिकता समझ में आएगी। 1960 के आसपास प्रगतिवाद के बाद जो नया चलन आया, वह आधुनिकता थी। आधुनिकता में लेखकों की शैली बहुत शानदार और अनूठी थी। आधुनिकता ने साहित्य में बड़ा बदलाव लाया। लेखकों ने नए तरीके और नई शैली में लिखना शुरू किया। आधुनिकता में प्रतीकों, प्रयोगों और बिंबों का भरपूर उपयोग हुआ और इनकी अति भी आधुनिकता के पतन का कारण बनी। आयुसा के सचिव डॉ. इरशाद स्यानवी ने कहा कि 1936 में प्रगतिवादी आंदोलन अस्तित्व में आया, तो कुछ समय बाद यानी 1947 में भारत विभाजन की घटना सामने आई। सब कुछ बदल गया। विषयों में पलायन का दर्द और दुख नजर आने लगा। युद्ध, अराजकता और क्रांति ने मानवता को झकझोर दिया। ऐसी विकट परिस्थितियों में नई पीढ़ी आगे आई, फिर सब कुछ बदल गया और एक नई दिशा तलाशी गई और इस नए आंदोलन या प्रवृत्ति को आधुनिकता कहा गया।
इस अवसर पर डॉ. अख्तर आजाद, डॉ. फरहत खातून ने अपने लेखों में आधुनिकता और कथा साहित्य पर गंभीर चर्चा की, जबकि सईद अहमद सहारनपुरी ने प्रोफेसर असलम जमशेदपुरी द्वारा आधुनिकता पर लिखे गए लेख को पढ़ा। डॉ. मुश्ताक अहमद वानी ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि आधुनिकता में वे सभी तत्व शामिल हैं, जिनसे उर्दू साहित्य को निश्चित रूप से लाभ हुआ है। आधुनिकता ने समाज की सभी चीजों को खुले दिल से स्वीकार किया है। 1980 के बाद यह महसूस किया गया कि आधुनिकता के नाम पर जो फैशनपरस्ती आई, उससे साहित्य को ज्यादा लाभ नहीं हुआ। हमें साहित्य को साहित्य ही रहने देना चाहिए।
प्रोफेसर रेशमा परवीन ने कहा कि वर्तमान में साहित्य पर नए सिरे से जोर दिया जा रहा है। क्या हम आधुनिक प्रगतिवाद की ओर काम कर रहे हैं? आधुनिकता के बाद जो लिखा जाएगा, उसे हम क्या नाम देंगे? क्या हमारे पास ऐसा कोई माध्यम उपलब्ध है, जिसके जरिए हम अपने विद्यार्थियों को समझा सकें?
कार्यक्रम के अंत में अपने अध्यक्षीय भाषण में प्रोफेसर सगीर अफ्राहीम ने कहा कि जब हम आंदोलनों या प्रेरणाओं में शामिल होते हैं, तो हम बहुत सी ऐसी बातें कहते हैं जो साहित्य से बाहर होती हैं। प्रेमचंद ने बहुत पहले कहा था कि हमें सौंदर्य के मानक बदलने होंगे। इस वाक्य में बहुत सी बातें आती हैं, जैसे कुर्रतुल ऐन हैदर ने हमारे कथा साहित्य को जो दिया, उसने साहित्य के मानक को ऊपर उठाया। जब आधुनिकता का जिक्र होता है, तो शब खुन और शम्स-उर-रहमान फारूकी का नाम भी दिमाग में आता है। आधुनिक साहित्य ने हमें प्रतीक, रूपक दिए और कथा से भटका दिया।
कार्यक्रम से डॉ. आसिफ अली, डॉ. अरशद अकरम, डॉ. हारून रशीद, मुहम्मद शमशाद और छात्र जुड़े।
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