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Saturday, April 5, 2025

एक ही राज्य में दो अलग दुनिया; उत्तर प्रदेश में बिजली का निजीकरण क्यों जरुरी?



देश एक, राज्य एक, तो नियम भी हों एक ही  

नित्य संदेश ब्यूरो 
लखनऊ। उत्तर प्रदेश में बिजली की व्यवस्था आज एक ऐसी दुविधा में फँसी हुई है, जहाँ एक तरफ भरपूर रोशनी है, तो दूसरी तरफ अंधेरा। एक ही राज्य में कुछ इलाके ऐसे हैं, जहाँ 24 घंटे बिजली मिलती है, तो कुछ जगहों पर हर दिन घंटों की कटौती और खराब सेवा आम बात है। यह असमानता सिर्फ एक तकनीकी खामी नहीं है, बल्कि एक बड़ी प्रणालीगत समस्या है, जिसका समाधान अब सिर्फ निजीकरण के रास्ते से ही संभव है। 

बिजली मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी पॉवर यूटिलिटी रैंकिंग के अनुसार, उत्तर प्रदेश की छह बिजली कंपनियों में से तीन सबसे नीचे हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि ये कंपनियाँ निवेश वसूली (आईआर) में खराब प्रदर्शन कर रही हैं, नवीकरणीय खरीद दायित्वों का पालन करने में विफल हैं, ग्राहकों को ठीक से सेवा नहीं दे रही हैं, और वाणिज्यिक और औद्योगिक उपभोक्ताओं से दिन के समय के शुल्क (टाइम-ऑफ-डे टैरिफ) के हिसाब से बिल नहीं ले रही हैं। इससे बिजली बचाने में मदद मिलती है और खर्च भी कम होता है। इन कमियों से उत्तर प्रदेश के बिजली क्षेत्र की छवि खराब हो रही है और इससे अलग-अलग इलाकों में सर्विस गैप भी बढ़ रहा रहा है। नोएडा जैसे इलाकों में नोएडा पॉवर कंपनी लिमिटेड (एनपीसीएल) 87 अंकों के साथ देश की टॉप कंपनियों में गिनी जाती है, जबकि इसी उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल, मध्यांचल और दक्षिणांचल की बिजली कंपनियाँ 66 में से 54वें, 56वें और 52वें स्थान पर हैं। यही नहीं, इन कंपनियों में एटीएंडसी (तकनीकी और वाणिज्यिक) नुकसान 20% तक पहुँच गया है, यानि हर 100 यूनिट में से 20 यूनिट का हिसाब ही नहीं मिल रहा। क्या यह स्थिति सामान्य है? यह सिर्फ एक-दो घरों की बात नहीं है, बल्कि यह उत्तर प्रदेश की बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम, जिसे तेरहवीं रैंक प्राप्त है) की बड़ी समस्या है जो गहराई से अपनी जड़े जमा चुकी है।

ग्राहक सेवा की बात करें, तो पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड (पुवीवीएनएल) में शिकायतों के निपटारे में 1000% से भी अधिक की देरी हो रही है। बिल समझ से बाहर हैं, मीटर गड़बड़ हैं, और बिजली बिना किसी सूचना के काट दी जाती है। वहीं, औद्योगिक उपभोक्ताओं को घटते-बढ़ते वोल्टेज, बार-बार बिजली ट्रिपिंग और समय पर कनेक्शन न मिलने से लाखों का नुकसान होता है।

कंपनियों की कमज़ोरी का सीधा असर उनकी आर्थिक सेहत पर पड़ता है। जहाँ एनपीसीएल -0.57 रुपए प्रति यूनिट के घाटे में है, वहीं पुवीवीएनएल 1.14 रुपए और केस्को 1.27 रुपए प्रति यूनिट के घाटे में है। इसका मतलब है कि ये कंपनियाँ अपनी लागत भी नहीं निकाल पा रही हैं। कुछ कंपनियाँ तो बिजली खरीदने के बाद 240 दिनों तक भुगतान नहीं कर पाती हैं, जिससे बिजली उत्पादन और ट्रांसमिशन कंपनियाँ भी डगमगाने लगती हैं।

उत्तर प्रदेश के बिजली क्षेत्र की इस बिगड़ती तस्वीर को ठीक करने के लिए अब निजीकरण की तरफ कदम बढ़ाना बहुत जरुरी हो गया है। महाराष्ट्र और दिल्ली जैसे राज्यों में निजी कंपनियों ने पुराने ढाँचों को सुधारा, बिलिंग और कलेक्शन में दक्षता लाई और ग्राहक सेवा को प्राथमिकता दी। नतीजा यह हुआ कि वहाँ उपभोक्ता संतुष्ट हुए, वित्तीय घाटा कम हुआ और व्यवस्था पर लोगों का भरोसा बढ़ा।

आज उत्तर प्रदेश में बिजली की बेहतर सेवा उन्हीं जगहों पर है, जहाँ निजीकरण हो चुका है या जहाँ औद्योगिक विकास बेहतर है। बाकी राज्य आज भी अराजक, घाटे में चलने वाली सरकारी कंपनियों के भरोसे हैं। क्या यह न्यायसंगत है? एक देश, एक राज्य, एक नियम होना चाहिए। हर नागरिक को बिजली की समान सुविधा मिलनी चाहिए, चाहे वो मिर्जापुर में हो या फिर मेरठ में।

ग्राहक सेवा में चूक आम बात है। शिकायतों का समाधान महीनों तक नहीं होता, मीटर रीडिंग गलत होती है और कोई सुनवाई नहीं होती। निजीकरण से पारदर्शिता और प्रतिस्पर्धा दोनों आती हैं। उपभोक्ताओं को विकल्प मिलता है और कंपनियाँ भी बेहतर सेवा देने के लिए प्रेरित होती हैं।

इस बात को नाकारा जा सकता है कि बिजली सिर्फ एक सुविधा नहीं, आज के समय में यह अत्यंत महत्वपूर्ण जरुरत है। उत्तर प्रदेश के हर किसान, दुकानदार, छात्र और कारोबारी को समान, सुरक्षित और सतत बिजली मिलनी चाहिए। निजीकरण न सिर्फ सिस्टम को चुस्त करेगा, बल्कि जनता को बेहतर सेवा और राज्य को बेहतर राजस्व भी प्रदान करेगा। यह फैसला आसान नहीं होगा, लेकिन यदि हम वाकई 'सबका साथ, सबका विकास' चाहते हैं, तो यह कदम अब किसी भी स्थिति में टालना नहीं चाहिए।

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