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नित्य संदेश। श्रीराम शाश्वत, सत्य, सुंदर, सुखकारी नाम है। यूं तो रामायण को लगभग तीन सौ प्रकार से, कई देशी-विदेशी भाषाओं में लिखा जा चुका है परन्तु, राम जी के जीवन चरित्र का सबसे प्राचीन और प्रथम वर्णन श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में, महर्षि वाल्मीकि जी ने किया है। यह महाकाव्य विष्णु जी के सातवें अवतार भगवान श्रीराम के जीवन और उनकी मर्यादा, आदर्श गुणों का सुंदर चित्रण व प्रस्तुतिकरण है। उनके प्रादुर्भाव और गुण न केवल रामायण के श्लोकों में झलकते हैं, बल्कि वे हमारी भारतीय सभ्यता, संस्कृति के मूल्यों के आधार स्तम्भ भी हैं। जन-जन की आस्था के केंद्र बिंदु रामजी की जन्मतिथि से लेकर उनके किंचित गुणों का सत्य वर्णन रामायण के कुछ श्लोकों द्वारा प्रस्तुत है।
श्रीराम जी का प्राकट्य
तप्तं तेन पुरा विप्र तदग्नि परमं हविः।
स च अग्निः सर्वदेवानां ददातु परमं पदम्।।
(बालकांड, सर्ग 16, श्लोक 19 )
अयोध्या नरेश राजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए पुत्रयेष्टि यज्ञ करवाया और अग्निदेव के माध्यम से उन्हें दिव्य खीर प्राप्त हुई, जिसके सेवन से उनकी प्रथम रानी कौशल्या के गर्भ से उनके प्रथम पुत्र श्रीराम का जन्म हुआ।
उस समय के शुभ मुहूर्त व ग्रह नक्षत्रों की स्थिति के विषय में ज्ञात होता है कि
ततो यज्ञे समाप्ते तु ऋतूनां षट् समत्ययुः।
ततः च द्वादशे मासे चैत्रे नावमिके तिथौ।।
नक्षत्रेऽदिति दैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पञ्चसु।
ग्रहेषु कर्कटे लग्ने वाक्पताविन्दुना सह।।
प्रोद्यमाने जगन्नाथं सर्वलोकनमस्कृतम्।
कौसल्याजनयद्रामं सर्वलक्षणसंयुतम्।।
(बालकाण्ड, सर्ग 18, श्लोक 8-11)
अर्थात - यज्ञ समाप्ति पर छह ऋतुएं बीत गईं तत्पश्चात चैत्र मास की नवमी तिथि को, जब अदिति के दैवत्य पुनर्वसु नक्षत्र में पांच ग्रह सूर्य, मंगल, गुरु, शुक्र और शनि की उच्च स्थिति होने पर कर्क लग्न में चंद्रमा के साथ बृहस्पति उदय हो रहा था, तब कौशल्या ने सर्व सुलक्षणों से युक्त, जगत के नाथ, सर्वलोक में वंदनीय श्रीराम को जन्म दिया। यह संयोग समस्त लोकों के लिए कल्याणकारी है। यह पवित्र घटना चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को हुई थी, इसे सनातनी आज तक "राम नवमी" के रूप में पूर्ण श्रद्धा से मनाते है।
इतने शुभ दिवस पर जन्में श्रीराम धर्मनिष्ठ, कर्तव्यनिष्ठ, सत्यनिष्ठ आदि जैसे दिव्य गुणों से युक्त हुए उनके गुणों का वर्णन करना सरल कार्य नहीं है बल्कि वृहद महासागर से मोती समेटने जैसा है।
1.मर्यादा पुरुषोत्तम राम
श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते है, क्योंकि उन्होंने स्वयं के सम्पूर्ण जीवन में हर सुख-दुख, सम-विषम परिस्थितियों में धर्म और मर्यादा का पालन किया।
पितुर्वचननिर्देशात् परतः प्रियं आत्मनः।
वनवासं हि संन्यासं प्राप्स्यामि विजने वनम्।।
(अयोध्याकांड, सर्ग 19, श्लोक 10)
यहां श्रीराम कहते हैं कि वे अपने पिता के वचन का पालन करने के लिए अपने सुख और प्रिय अयोध्या को त्यागकर वनवास स्वीकार करेंगे। इससे ज्ञात होता है कि वे कितने आज्ञाकारी, मर्यादित और कर्तव्यनिष्ठ है।
2. आदर्श पुत्र, भ्राता, पति व पिता
श्रीराम ने सारे रिश्ते नातों को पूर्णता दी। सीता जी का उनके प्रति अतुलनीय प्रेम, भक्ति, अनुज लक्ष्मण का राम जी के प्रति लगाव व सेवाभाव और भरत की उनके प्रति निस्वार्थ भावना अतुलनीय थी। जो यूं ही तो अर्जित नहीं होती इसके लिए आदर्श कर्म संचय करने होते है जो निश्चित ही राम जी ने किए भी। एक प्रसंग है जब सीता का हरण हुआ, तो राम जी व्यथित हुए।
हा सीते लक्ष्मणेनैवं विलपन्तं प्रियं प्रियः।
रामं शोकार्णवे मग्नं न जहाति महान् सुखः।।
(अरण्यकांड, सर्ग 67, श्लोक 10)
यहां श्रीराम का सीता मां के प्रति प्रेम और शोक व्यक्त हुआ है, जो उनके पति रूप में समर्पण को दर्शाता है। समाज के लिए वे सीता माता की अग्निपरीक्षा जरूर लेते है लेकिन उनके प्रति अपने कर्तव्य को भी निभाते हैं। यह दिखाता है कि वे समाज के सामने भी अपनी पत्नी के सम्मान और रक्षा के लिए प्रतिबद्ध थे।
लव और कुश के जन्म के बाद, हालांकि राम जी को उनके बारे में पहले पता नहीं था, पर जब वे उनके सामने आए और अपनी पहचान बताई, तो रामजी उन्हें अपने पुत्रों के रूप में स्वीकारते हैं। यह श्लोक उनके पितृत्व को दर्शाता है:
पुत्रौ मे लवकुशौ चेति विदित्वा हर्षितोऽभवम्।
मम वंशस्य कीर्तिश्च वर्धते तौ च रक्षितौ।।
(उत्तरकांड)
अर्थ: लव और कुश मेरे पुत्र हैं, यह जानकर मैं हर्षित हूं। मेरे वंश की कीर्ति बढ़ती है और वे दोनों मेरे संरक्षित हैं।
3. सखाभाव, दयालुता और करुणा
श्रीराम का हृदय करुणा दृष्टिगोचर होती है। जब वे वनवास पर निकले तो उनकी मित्रता, दयालुता केवट, निषादराज, सुग्रीव, हनुमान जी के लिए दर्शनीय होती है।
केवट को पुत्र के समान कहते है
नौः संनादति मे पुत्र त्वया संनादिता ध्रुवम्।
त्वं हि नावं समारुह्य तरसि सरयूं नदीम्।।
(अयोध्या कांड, 2.52.8):
अर्थ: हे पुत्र! मेरी नाव तुम्हारे द्वारा संनादित तैयार हो रही है। तुम नाव पर चढ़कर सरयू नदी को पार कराते हो।
वे आगे निषादराज को मित्र
रुप में कहते है
सखे त्वं मम नित्यं हि प्रियः प्राणसमानगः।
निषादराज संनादति मे हृदयं त्वया संनादितम्।।
(वाल्मीकि रामायण, अयोध्या कांड, 2.50.11)
अर्थ: हे सखे! तुम मेरे लिए सदा प्रिय और प्राणों के समान हो। हे निषादराज! तुम्हारे साथ से मेरा हृदय आनंदित हो रहा है। जो विनम्रता का परिचायक है।
राम सुग्रीव से मित्रता करते हैं और उन्हें अपना राज्य वापस दिलाने का वचन देते हैं। यह सखाभाव सुग्रीव के जीवन का आधार बनती है।
मित्रं हि कार्यं संनादति मित्रेण संनादितम्।
सुग्रीव मम संनादति हृदयं त्वया संनादितम्।।
(किष्किंधा कांड, 4.8.20)
अर्थ: राम जी कहते है मित्र का कार्य मित्र के द्वारा ही पूर्ण होता है। हे सुग्रीव! तुम्हारे साथ से मेरा हृदय संनादित (प्रसन्न) हो रहा है।
यहां राम का सुग्रीव के प्रति विश्वास और मित्रता स्पष्ट है।
वही हनुमान के प्रति राम की करुणा और स्नेह
दर्शाते हुए वे हनुमान जी को अपने गले लगाते है।
हनुमान् मम संनादति प्रियः प्राणसमानगः।
त्वया कृतं यत् संनादति मे हृदयं त्वया संनादितम्।।
(वाल्मीकि रामायण, सुंदर कांड, 5.35.64)
अर्थ: हनुमान! तुम मेरे लिए प्रिय और प्राणों के समान हो। तुमने जो किया, उससे मेरा हृदय आनंदित हो रहा है।
यहां राम का हनुमान के प्रति स्नेह और उनकी भक्ति की प्रशंसा करना उनकी दयालुता को दर्शाती है।
रामायण में राम की मित्रता और दयालुता इन पात्रों के साथ उनके व्यवहार में स्पष्ट होती है। केवट को पुत्रवत, निषादराज को मित्रवत, सुग्रीव को सहायक और हनुमान को प्रिय भक्त के रूप में स्वीकार करना राम के महान चरित्र का ही तो प्रमाण है।
4. उपकृत, आभारी
रामायण में जटायु के प्रति भगवान राम का आभार व्यक्त करते है। जब जटायु, रावण द्वारा सीता के हरण के समय उसका विरोध करते हुए घायल हो मृत्यु के निकट पहुंचते है, तब राम जी जटायु की वीरता और बलिदान की प्रशंसा करते, कहते है:-
यदि मे वैदेही दृष्टा त्वया जटायो
यदि वा श्रुतं किंचिद् वद ममाग्रतः।
न हि ते मोघं प्राणत्यागः कृतो मया
सर्वं मे विस्तरेण त्वं कथयस्व यथातथम्।।
(अरण्यकांड अध्याय 14, श्लोक 31)
अर्थ : हे जटायु! यदि तुमने वैदेही (सीता) को देखा हो या कुछ सुना हो, तो मेरे सामने कहो। तुम्हारा यह प्राणत्याग मेरे लिए व्यर्थ नहीं हुआ। तुम मुझे सब कुछ विस्तार से यथार्थ रूप में बताओ।
यह श्री राम जी के उपकृत स्वभाव को ही तो दर्शाता है।
5. वीरता और धर्मपरायणता
श्रीराम एक अद्वितीय बलशाली, महान योद्धा थे। रावण जैसे शक्तिशाली राक्षस का वध उन्होंने धर्म की स्थापना के लिए किया।
रामो विग्रहवान् धर्मः साधुः सत्यपराक्रमः।
राजा सर्वस्य लोकस्य देवानामिव वासवः।।
(युद्धकांड, सर्ग 103, श्लोक 28)
यहां श्रीराम को धर्म का स्वरूप बताया गया है, जो सत्य और पराक्रम से युक्त हैं। उनका सम्पूर्ण जीवन धर्म और सत्य के प्रति, अटूट निष्ठा का प्रतीक है।
6. न्याय और समता
श्रीराम ने प्रजावत्सल थे। अपने राज्य में उन्होंने पूरी प्रजा के साथ समान व्यवहार किया। रावण वध के बाद विभीषण को लंका का राजा बनाकर उन्होंने न्याय और समता का परिचय दिया। इस संदर्भ में वर्णित है :-
न देशजं न संनादति न च संनादति स्वयम्।
रामः सर्वं परित्यज्य प्रीत्या संनादति प्रियम्।।
(युद्धकांड, सर्ग 111, श्लोक 15)
यहां श्रीराम की निष्पक्षता और सभी के प्रति प्रेम की भावना प्रकट होती है।
निष्कर्षतः श्रीराम केवल एक कथा के नायक नहीं है, बल्कि मानवता के लिए एक अनुकरणीय आदर्श है। वे जीवन का ऐसा प्रकाशपुंज है जो हमें मर्यादा, धर्म, करुणा, वीरता , सत्यता, कर्तव्यबोध, समता, समरसता और प्रेम का मार्ग दिखाता है। रामायण उनके गुणों का जीवंत वर्णन करती हैं संग हमें प्रेरणा भी देती हैं कि जीवन में कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी सत्यधर्म का पालन करना ही चाहिए। श्रीराम के जन्म और गुणों से न केवल अयोध्या बल्कि समस्त संसार कृतार्थ हो उठता है।
सपना सी.पी. साहू 'स्वप्निल'
इंदौर (म.प्र.)
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