नित्य संदेश।
बीत गए
कितने मनवन्तर
खोज रहा हूं ,
युगों युगों से ,
काल क्षेप से ,
छूटा जो घर ।
अब तो ,
मानचित्र भी विस्मृत ,
स्मृतियां भी
नहीं बतातीं ,
कैसा था ,
मेरा अपना घर ?
प्रथम बार
जब बाहर निकला ,
यह अनगढ
संसार मिला था ।
हिम मंडित
इस धवल धरा का
हिम , मेरे श्रम से
पिघला था ।
हिमयुग के
ठिठुरे वर्षों में ,
ऊष्मा पाई ,
अग्नि खोज कर ।
बीत गए। ***** 1
मैने रत्नाकर
मथ कर के ,
माणिक, मुक्ता
रत्न निकाले ।
मैने ही तो
धरा चीर कर
शस्य धान्य के
बीज निकाले ।
मेरी उस
पौरुष यात्रा के ,
साक्षी हैं
ये अवनी अंबर ।
बीत गए। ***** 2
श्रुतियों की ये
गूढ ऋचाएं ,
मेरे अन्तर में
प्रकटीं थीं ।
सरस साम की
मधुर रागिनी ,
मेरे कानों से
लिपटी थीं ।
मैने ही ,
उद् गीथ गुंजाया ,
अनहद गीतों में
स्वर भर कर ।
बीत गए ****** 3
ऋक् का वह
आध्यात्मिक चिंतन ,
यजु का वह
सामाजिक नियमन ।
मेरे मानस में प्रकटे ,
सूत्र ग्रंथ और
सारे दर्शन ।
मैं ही कर्मकाण्ड संवाहक
अग्निहोत्र का ,
मैं वैश्वानर ।
बीत गए ****** 4
जिन मंत्रों का
अर्थ खोज कर ,
पश्चिम का
विज्ञान बढा है ।
उस अथर्व का
सार्थक चिंतन ,
मैने ही तो ,
खोज गढा है ।
मैं सृष्टा हूं ,
मैं ही दृष्टा ,
विश्व , मुझे
कहता विश्वंभर ।
बीत गए ***** 5
मैने अपने
दृढ भुज बल से ,
विस्तारित
साम्राज्य बनाए ।
और इसी
भुज बल से मैने,
जमें - बंधे
साम्राज्य मिटाए ।
मैं सृजक हूं ,
मैं विध्वंसक ,
इन चरणों में ,
आनत जग भर ।
बीत गए। ***** 6
रत्नाकर से
भूमि छीन कर ,
मैने सेतु समुद्रम् बांधा ।
हिमगिरि और
विंध्याचल जैसे
तुंग मेरु श्रृंगों को लांघा ।
मैं साहस का
जीवित विग्रह ,
विघ्न संकटों से
कैसा डर ?
बीत गए। ****** 7
शत शत
संस्कृतियों का
मैने ही ,
नीति विधान
रचा लिखा है ।
हर युग में
मेरा यह कौशल ,
सार्थक और
समृद्ध दिखा है ।
महा प्रलय की ,
गहन निशा में ,
मैं ही चमका
बन कर दिनकर ।
बीत गए। ****** 8
इतना सब कुछ
रच कर भी मैं ,
अपने घर को
खोज न पाया ।
जब से घर
छूटा है मेरा ।
एक झलक भी
देख न पाया ।
तुम्हें पता हो तो
बतला दो ,
हाथ पकड कर
पहुंचा दो घर ।
बीत गए ****** 9
मैं
यायावर
जीवन
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