नित्य संदेश। इसमें कोई संदेह नहीं कि दिवंगत आदिवासी नेता शिबू सोरेन ने समूचे आदिवासी समाज में जागरुकता लाने का काम किया। यह जागरुकता कई स्तरों पर थी। शैक्षिक, सामाजिक और सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक जागरुकता। जिसके लिए उन्होंने अथक संघर्ष किया। उन्होंने जमाने की ख़ाक छानी। जंगलों और पहाड़ों को एक किया, शहरों और आदिवासी बस्तियों में चप्पलें घिसी, दिन-रात लगन और निरंतर परिश्रम से उन्हें एकजुट किया। तब शिबू सोरेन न केवल आदिवासी समाज को जगाने में सफल रहे, बल्कि उनमें अपने अधिकारों के लिए जुनून भी पैदा किया।
इस महान नेता का जन्म 11 जनवरी, 1944 को रामगढ़ ज़िले के निमरा गाँव में हुआ था। यहीं उनकी प्रारंभिक शिक्षा हुई। प्रारंभिक शिक्षा के दौरान ही उनके पिता सोबरन मांझी की कुछ अराजक तत्वों ने हत्या कर दी थी। जिसके कारण उनकी शिक्षा अधूरी रह गई। शिबू सोरेन संथाल जन जाति से हैं। उनका विवाह रूपी किस्कू से हुआ है। उनके तीन बेटे दुर्गा सोरेन (जामा से पूर्व विधायक), हेमंत सोरेन (झारखंड के मुख्यमंत्री), बसंत सोरेन (दुमका से विधायक) और एक बेटी अंजलि सोरेन हैं।
शिबू सोरेन को 'दिशोमगुरु' भी कहा जाता है। आदिवासी राजनीति में शिबू सोरेन पहली बार राज्यसभा पहुंचे। वे तीन बार झारखंड राज्य के मुख्यमंत्री रहे। 2005 में 10 दिन के लिए, फिर 2008 से 2009 तक और 2009 से 2010 तक। वे दुमका से तीन बार1980 से1984, 1989 से1998 और 2002 से 2019 तक सांसद रहे। वे तीन बार कोयला मंत्रालय के कैबिनेट मंत्री रहे। इतना ही नहीं, झारखंड मुक्ति मोर्चा आज देश का एक महत्वपूर्ण राजनीतिक दल बन गया है। उड़ीसा और पास के विभिन्न राज्यों में यह दल फैला हुआ है। पहले इसका नाम झारखंड लिबरेशन फ्रंट था। इसकी स्थापना विनोद बिहारी महतो, शिबू सोरेन और ए.के.रॉय द्वारा 2 फरवरी, 1972 को की गई थी। अब इसे झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के नाम से जाना जाता है। इसकी छात्र शाखा को झारखंड छात्र मोर्चा, युवा शाखा को झारखंड युवा मोर्चा और महिला शाखा को झारखंड महिला मोर्चा के नाम से जाना जाता है। शिबू सोरेन इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। 2025 में हेमंत सोरेन ने यह पद संभाला। जेएमएम 2023 से 'इण्डिया' का एक मजबूत स्तंभ बना हुआ है।
शिबू सोरेन की छवि हमेशा एक धर्मनिरपेक्ष नेता की रही है। उन्होंने अपना पूरा जीवन मुसलमानों और आदिवासी समुदायों को एकजुट करने और ज़मीनी मुद्दों को उठाने में लगा दिया। मुझे अच्छी तरह याद है कि जेएमएम के शुरुआती राजनीतिक सफर में उन्होंने कई बार जमशेदपुर का दौरा किया था। यह 1990 के आसपास की बात है। कई बार गांधी मैदान में उन्होंने (हसन रिजवी, पूर्व विधायक) अपने वोट के साथ एक नोट की आवाज़ उठाई थी। आपको यकीन नहीं आएगा कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव में मुसलमानों ने जेएमएम को वोट और नोट दोनों दिए। आदिवासियों और मुसलमानों का यह तालमेल किसी न किसी रूप में अब तक बरकरार है। यह दिशोम गुरु स्वर्गीय शिबू सोरेन के व्यक्तित्व का ही जादू था कि कांग्रेस, आरजेडी, जेडीयू के होते हुए भी झारखंड के मुसलमानों ने अब तक झामुमो को ही वोट दिया।
शिबू सोरेन के व्यक्तित्व में ग़ज़ब का आकर्षण था। उन्होंने आदिवासी समाज को शिक्षित बनाने पर जोर दिया और उन्हें बताया कि शिक्षा किस प्रकार व्यक्ति को बेहतर बनाती है। यह उसे जर्रे से आफताब बना देती है। उनके भीतर एक आग थी जो उन्हें दूसरों के लिए आवाज उठाने के लिए प्रेरित करती रही। यह आग उन्हें बचपन में ही मिली थी। जब वे मात्र 13-14 वर्ष के थे, तब कुछ साहूकारों ने उनके पिता सोबरन मांझी की हत्या कर दी थी, तो उनके अंदर बदले की आग भड़क उठी। इस आग ने उनके सामने साहूकारों और जमींदारों के खिलाफ समाज को जगाने की कठिन चुनौती खड़ी कर दी। उन्होंने इस चुनौती को स्वीकार किया और एक महान आंदोलन चलाया, जिसमें उन्होंने धन, जमीन और जंगल की रक्षा को अपना विशेष हथियार बनाया।
साहूकार आदिवासियों की जमीन पर गलत तरीके से कब्जा करते थे। साथ ही, वे अपनी अन्यायपूर्ण शक्ति से उन पर अत्याचार करते थे। शिबू सोरेन ने आदिवासियों, स्थानीय लोगों, दलितों और पिछड़े वर्गों को एकजुट किया और उन्हें अपने अधिकारों के लिए जागृत किया। उन्होंने उन्हें शिक्षा, सभ्यता, जमीन और जंगल के लिए लामबंद किया। धीरे-धीरे, वे लोग शिबू सोरेन की आवाज़ में आवाज़ मिलाने लगे। इस एकता और मार्गदर्शन का प्रभाव पूरे झारखंड पर पड़ा। शिबू सोरेन की एक आवाज पर लाखों लोग इकट्ठा होने लगे। इस तरह उन्होंने एक अलग राज्य की आवाज बुलंद की।
झारखंड के गठन से पहले इसका नाम छोटा नागपुर था। इसे दक्षिण बिहार भी कहा जाता था। यह बिहार राज्य का हिस्सा था। यह क्षेत्र खनिजों से समृद्ध था। यहाँ के अधिकांश खजाने बिहार के कब्जे में थे। बिहार सरकार यहाँ से बहुमूल्य खनिज ले जाती थी। कुछ खजाने केंद्र को जाते थे। यहाँ रहने वाले लोग देखते रहते थे। वे कड़ी मेहनत करते, खून-पसीना बहाते, लेकिन उन्हें क्या मिलता? पहनने के लिए अच्छे कपड़े नहीं थे, खाने के लिए दिन में तीन वक्त का खाना नहीं था और रहने के लिए छायादार मकान नहीं थे। यहां के निवासियों में गरीबी थी। वो एक वक्त रुखा-सूखा खाते, एक धोती पहनते और झोपड़ियों में गुजर-बसर करते, शिक्षा का तो नामोनिशान नहीं था। गरीबी, भुखमरी और जीवन के निम्नतम स्तर पर जीवन यापन करना देश के लिए शर्म की बात थी। देश आजाद हो गया था, लेकिन ऐसा लगता था कि यह इलाका अभी भी गुलाम है।
शिबू सोरेन ने राज्य को अलग करने के लिए आंदोलन चलाया। सभी ने उनका समर्थन किया। खनिजों के बाहर जाने पर रोक लगा दी गई। जिलेवार सीमाएं सील कर दी गईं। बिहार और केंद्र सरकार हिल गई। पुलिस को तैनात कर दिया गया। जेलें भर दी गईं। लेकिन आंदोलन जारी रहा। शिबू सोरेन की 40 साल की मेहनत रंग लाई और 2000 में झारखंड की स्थापना हुई। शिबू सोरेन राज्य के मुख्यमंत्री बने। झारखंड बना जरूर, लेकिन मजा नहीं आया। 2005 में झामुमो के नेतृत्व में राज्य में सरकार का सपना शानदार तरीके से साकार हुआ। शिबू सोरेन ने अपनी दिन-रात की मेहनत से इस इलाके को देश के नक्शे पर ला खड़ा किया कि आज देश के प्रगतिशील राज्यों में झारखंड दूसरे राज्यों से कतई पीछे नहीं।समृद्धि और झारखंड का चोली दामन का साथ है। हर जगह शांति और व्यवस्था है। स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों और अन्य शैक्षणिक संस्थानों की संख्या बढ़ रही है।
शिबू सोरेन के सामने भी विकट परिस्थितियाँ आईं। उन पर हत्या का आरोप भी लगा। आंदोलन के कारण उन्हें जेल भी हुई। बिहार और केंद्र सरकारें भी उनके खिलाफ हो गईं। पुलिस विभाग ने उनका जीना मुश्किल कर दिया। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। बहुत पहले इंदिरा गांधी ने आंदोलन के सिलसिले में ही उनकी गिरफ्तारी का आदेश दिया था। लेकिन उन्हें कोई गिरफ्तार नहीं कर सका। एक बार इंदिरा गांधी के निमंत्रण पर वे दिल्ली गए और दोनों के बीच लंबी बातचीत हुई। इंदिरा गांधी ने उन्हें आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ने और उन्हें जागृत करने की सलाह दी। जो उन्होंने किया। उन्होंने नए जोश और स्वतंत्रता के साथ मिशन को आगे बढ़ाया। अब उनके आंदोलन में एक अलग तीव्रता और जोश था।
शिबू सोरेन ने आदिवासियों, दलितों, पिछड़े वर्गों और अति पिछड़ी जातियों को एकजुट किया। उन्होंने उन्हें हर तरह से (शैक्षिक, आर्थिक, राजनीतिक) जागृत किया, अलग राज्य की स्थापना के लिए अथक प्रयास किए, अलग राज्य के आंदोलन को लोकप्रिय बनाया, लोगों ने बलिदान दिए। उन्होंने झामुमो में नई जान फूंक दी और इसे पूरे राज्य और दूर-दूर तक फैलाया। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि आदिवासियों और दलितों को मुसलमानों से जोड़ना था। पार्टी ने हुसैन अंसारी, हसन रिजवी, हाफीजुल हसन, मुहम्मद ताजुद्दीन और हिदायतुल्लाह खान जैसे नेताओं को सम्मान और आदर दिया। दिशोम गुरु अपना काम करने के बाद 4 अगस्त,2025 को हमें हमेशा के लिए छोड़ गए।
उनकी उपस्थिति में ही उनके उत्तराधिकारी, उनके बेटे हेमंत सोरेन ने झारखंड की राजनीति में प्रवेश किया और आज वे झामुमो के अध्यक्ष और राज्य के मुख्यमंत्री हैं। मुसलमानों को उनसे शिकायत है। अभी तक राज्य में उर्दू अकादमी, मदरसा बोर्ड, हज बोर्ड का गठन नहीं हुआ है। उन्हें आबादी के अनुपात में चुनावों में मौका दिया जाना चाहिए। आज भी मुसलमान झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ हैं। सरकार को भी उनकी समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए और उन्हें अपने साथ लेकर चलना चाहिए।
प्रस्तुति
प्रोफ़ेसर असलम जमशेदपुरी
विभाग अध्यक्ष, उर्दू विभाग (ccsu) मेरठ
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