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Thursday, July 3, 2025

"घर की खोज "


नित्य संदेश।
बीत गए
कितने मनवन्तर
खोज रहा हूं , 
युगों युगों से , 
काल क्षेप से , 
छूटा जो घर ।
अब तो , 
मानचित्र भी विस्मृत ,
स्मृतियां भी 
नहीं बतातीं ,
कैसा था ,
मेरा अपना घर ?

प्रथम बार 
जब बाहर निकला , 
यह अनगढ 
 संसार मिला था ।
हिम मंडित 
इस धवल धरा का 
हिम , मेरे श्रम से 
पिघला था ।
हिमयुग के 
ठिठुरे वर्षों में , 
ऊष्मा पाई , 
अग्नि खोज कर । 
बीत गए। ***** 1

मैने रत्नाकर 
मथ कर के ,
माणिक, मुक्ता 
रत्न निकाले ।
मैने ही तो 
धरा चीर कर 
शस्य धान्य के 
बीज निकाले ।
मेरी उस 
पौरुष यात्रा के ,
साक्षी हैं 
ये अवनी अंबर ।
बीत गए। ***** 2 

श्रुतियों की ये 
गूढ ऋचाएं , 
मेरे अन्तर में 
प्रकटीं थीं ।
सरस साम की 
मधुर रागिनी , 
मेरे कानों से 
लिपटी थीं ।
मैने ही , 
उद् गीथ गुंजाया ,
अनहद गीतों में 
स्वर भर कर ।
बीत गए ****** 3

ऋक् का वह 
आध्यात्मिक चिंतन , 
यजु का वह 
सामाजिक नियमन ।
मेरे मानस में प्रकटे ,
सूत्र ग्रंथ और 
सारे दर्शन ।
मैं ही कर्मकाण्ड संवाहक 
अग्निहोत्र का ,
मैं वैश्वानर ।
बीत गए ****** 4

जिन मंत्रों का 
अर्थ खोज कर , 
पश्चिम का 
विज्ञान बढा है ।
उस अथर्व का
सार्थक चिंतन , 
मैने ही तो , 
खोज गढा है ।
मैं सृष्टा हूं ,
मैं ही दृष्टा , 
विश्व , मुझे 
कहता विश्वंभर ।
बीत गए ***** 5

मैने अपने 
दृढ भुज बल से ,
विस्तारित 
साम्राज्य बनाए । 
और इसी 
भुज बल से मैने, 
जमें - बंधे 
साम्राज्य मिटाए ।
मैं सृजक हूं , 
मैं विध्वंसक ,
इन चरणों में , 
आनत जग भर । 
बीत गए। ***** 6

रत्नाकर से 
भूमि छीन कर , 
मैने सेतु समुद्रम् बांधा ।
हिमगिरि और 
विंध्याचल जैसे 
तुंग मेरु श्रृंगों को लांघा ।
मैं साहस का 
जीवित विग्रह , 
विघ्न संकटों से 
कैसा डर ?
बीत गए। ****** 7

शत शत 
संस्कृतियों का 
मैने ही , 
नीति विधान 
रचा लिखा है ।
हर युग में  
मेरा यह कौशल ,
सार्थक और 
समृद्ध दिखा है । 
महा प्रलय की , 
गहन निशा में ,
मैं ही चमका 
बन कर दिनकर । 
बीत गए। ****** 8

इतना सब कुछ
रच कर भी मैं ,
अपने घर को 
खोज न पाया । 
जब से घर 
छूटा है मेरा ।
एक झलक भी 
देख न पाया ।
तुम्हें पता हो तो 
बतला दो , 
हाथ पकड कर 
पहुंचा दो घर । 
बीत गए ****** 9


                 मैं 
             यायावर 
              जीवन

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