अर्जुन देशवाल
नित्य संदेश, बहसूमा। गिद्ध, गौरैया और गिलहरी के बाद अब कौवों की संख्या में भी कमी आई है। एक दशक में इनकी तादाद घटकर आधी से कम रह गई है।
पेड़ों की डाल पर बैठकर कांव- कांव कर पर्यावरण को स्वच्छ बनाने वाले कौवे अब लुप्त जैसे होते जा रहे हैं। माना जा रहा है कि कीटनाशकों के बढ़ते इस्तेमाल व जहरीली चीजों के सेवन करने वाले मृत पशुओं का भक्षण कौवों का तेजी से खात्मा कर रहा है। हालात यह है की मुंडेर पर बैठकर कांव-कांव घर में मेहमानों के आने की सूचना देने वाला कभी श्राद्ध के दिनों में खुद मेहमान जैसी खातिर करवाता था, जो अब ढूंढे से नहीं मिलता है।
वन अधिनियम के तहत कौवा श्रेणी चार का पक्षी है, जो पर्यावरण को दूषित होने से बचाता है। कौवे मृत पशु का मीट व गंदी वस्तुओं को खाकर पर्यावरण को स्वच्छ करने में मददगार साबित होते हैं। एक दशक के आंकड़े बताते हैं कि कौवों की तादाद में 50% से अधिक कमी आई है। फसलों पर कीटनाशक रसायनों का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल भी कौवों की तादाद में कमी आने का कारण माना जा रहा है, क्योंकि कीटनाशक प्रभावित वनस्पति अक्सर पक्षियों का भोजन बनती है।
बात चाहे लुप्त हो रही गौरैया की हो या लुप्त होने के कगार पर पहुंच रहे कौवों की, तेजी से घटते जंगल व पेड़ों के कटान के कारण पक्षियों के आशियाने भी नष्ट हो गए हैं। माकूल जगह के अभाव में इनके घोसले व प्रजनन प्रक्रिया प्रभावित हो रही है।
वन विभाग के अफसर स्वीकारते हैं कि पेड़ों के कटान से पक्षी, खंडहरों व बिजली टेलीफोन के खंबो पर घोंसला बनाने को मजबूर है, जिनमें कई दफा करंट आने से मौत तक हो जाती है। खेतों में अंधाधुंध कीटनाशक रसायनों का इस्तेमाल होने से कीड़े मकोड़े मर जाते हैं जिन्हें खाने से कौवों की मौत हो जाती है।
वन रक्षक अतुल स्वामी ने बताया कि कीटनाशकों और रासायनिक खादों का उपयोग बढ़ने से कौवों की भोजन श्रृंखला जहरीली हो गई है। जैसे पशु दवाइयां, जिनका उपयोग मवेशियों में होता है, मृत जानवरों को खाने वाले पक्षियों के लिए जानलेवा साबित हुई है। गिद्धों की तरह कौए भी इस चक्र में आते हैं।
तेजी से शहरी विस्तार और पेड़ों की कटाई ने कौंवों के घोसले बनाने की जगहें घटा दी है। पहले की तुलना में अब खुले कूड़ेदान और घर का जैविक कचरा कम हुआ है या ढक दिया जाता है जिससे कौवों को आसानी से भोजन नहीं मिल पाता। स्वच्छता अभियानों के चलते भी कई जगहों पर कौवों के भोजन के परंपरा स्रोत समाप्त हो गए हैं।
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