Sunday, July 20, 2025

तर्कहीन समय की अभिव्यक्ति: गालियाँ


नित्य संदेश। हाल ही में सोशल मीडिया पर एक शख़्स ने इकरा हसन, जो कि कैराना से सांसद हैं, के बारे में अपशब्द कहे। यह वीडियो देखते ही देखते वायरल हो गया। न केवल वायरल हुआ, बल्कि उस व्यक्ति को एक तरह की पॉपुलैरिटी भी मिल गई — जैसे गालियाँ आज के समय में पहचान और पॉपुलैरिटी का शॉर्टकट बन चुकी हों।

इससे पहले संभल में कुछ लड़कियों को गिरफ्तार किया गया, जिनकी रीलें गालियों से भरी हुई थीं। हैरानी की बात यह थी कि इन लड़कियों के इंस्टाग्राम पर पहले ही लाखों फॉलोअर्स थे, और गिरफ़्तारी के बाद उनके फॉलोअर्स की संख्या और भी बढ़ गई। अख़बारों में खबर छपी कि गालियों की वजह से फॉलोअर्स में 90 हज़ार की बढ़ोतरी हो गई। इसका मतलब ये हुआ कि गालियाँ अब सिर्फ गुस्से या विरोध की भाषा नहीं रहीं, बल्कि एक 'मार्केट' हैं — एक कमाई का ज़रिया, एक लोकप्रियता का फार्मूला।

यहाँ तक कि संसद भी इस प्रवृत्ति से अछूती नहीं रही। भाजपा सांसद रमेश विधूड़ी ने संसद के भीतर अमरोहा के सांसद दानिश अली के लिए जिस भाषा का प्रयोग किया, वह किसी नुक्कड़ के झगड़े जैसी थी, न कि लोकतंत्र के सबसे पवित्र मंदिर की। दुखद यह है कि न संसद रुकी, न सरकार, और न ही समाज ने विशेष प्रतिक्रिया दी — मानो अब ये ‘नया सामान्य’ हो गया हो।

गालियाँ अब सिर्फ व्यक्तिगत संवाद का हिस्सा नहीं रहीं। भोजपुरी, हरियाणवी और यहां तक कि पंजाबी गीतों में भी गालियों का 'एस्थेटिक्स' रच दिया गया है। वेब सीरीज़ और ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर गालियाँ न केवल सामान्य हो चुकी हैं, बल्कि कई बार तो स्क्रिप्ट का केंद्रबिंदु लगती हैं। ये गालियाँ सिर्फ सुनने में नहीं आतीं, बल्कि इनसे किरदारों की ‘रियलिज्म’ भी परिभाषित की जाती है।

गालियों की उत्पत्ति का इतिहास भी दिलचस्प है। भाषाशास्त्रियों का मानना है कि जब इंसान के पास तर्क या शब्द नहीं होते, तब वह गालियों का सहारा लेता है। यह एक तरह की ‘असहाय अभिव्यक्ति’ है — क्रोध, व्यंग्य, असहमति, पीड़ा और कुंठा को व्यक्त करने का एक असभ्य माध्यम। गालियाँ समाज के हाशिए पर पनपती हैं और सत्ता के केंद्र तक पहुंचती हैं। यह विरोध की भाषा भी बन जाती हैं और कई बार मनोरंजन की भी।

लेकिन गालियाँ अब सिर्फ ‘नीच भाषा’ नहीं हैं। वे 'डिजिटल कैपिटल' बन चुकी हैं। पॉपुलर कल्चर में इनका स्थान है, और सोशल मीडिया पर तो यह एक इंडस्ट्री बन गई है। गालियाँ अब सिर्फ सुनाई नहीं देतीं, बल्कि बिकती हैं — व्यूज़, लाइक और फॉलोअर्स के रूप में।

आज ही एक प्रोफेसर साहब ने मेरी एक पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए मुझे ‘खुराफ़ाती दिमाग़’ कहा। वे एक डिग्री कॉलेज के पूर्व प्राचार्य हैं। मैं सोचने लगा — जब एक उच्च शिक्षित व्यक्ति इस भाषा का चयन करता है, तो साफ़ है कि गाली-गलौज का संबंध न तो शिक्षित होने से है और न ही पद से। पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी जब अपनी बात को तर्क और शालीनता से नहीं रख पाता, तो वह अपनी कुंठा को गालियों के ज़रिए उगलता है।

गालियाँ अब भाषा के हाशिए पर नहीं रहीं — वे मुख्यधारा में हैं। वे तर्कहीन समय की नई अभिव्यक्ति हैं। और जब समाज गालियों से नफरत नहीं, बल्कि तालियाँ बजाता है — तो समझिए कि भाषा की नहीं, हमारी चेतना की हार हो रही है।

लेखक
डॉक्टर रविन्द्र राणा
वरिष्ठ पत्रकार 

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